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स जि॑न्वते ज॒ठरे॑षु प्रजज्ञि॒वान्वृषा॑ चि॒त्रेषु॒ नान॑द॒न्न सिं॒हः। वै॒श्वा॒न॒रः पृ॑थृ॒पाजा॒ अम॑र्त्यो॒ वसु॒ रत्ना॒ दय॑मानो॒ वि दा॒शुषे॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa jinvate jaṭhareṣu prajajñivān vṛṣā citreṣu nānadan na siṁhaḥ | vaiśvānaraḥ pṛthupājā amartyo vasu ratnā dayamāno vi dāśuṣe ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। जि॒न्व॒ते॒। ज॒ठरे॑षु। प्र॒ज॒ज्ञि॒ऽवान्। वृषा॑। चि॒त्रेषु॑। नान॑दत्। न। सिं॒हः। वै॒श्वा॒न॒रः। पृ॒थु॒ऽपाजाः॑। अम॑र्त्यः। वसु॑। रत्ना॑। दय॑मानः। वि। दा॒शुषे॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:2» मन्त्र:11 | अष्टक:2» अध्याय:8» वर्ग:19» मन्त्र:1 | मण्डल:3» अनुवाक:1» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - मनुष्यों को उचित है कि जो (जठरेषु) उदरों में (प्रजज्ञिवान्) प्रबलता से उत्पन्न होता हुआ (चित्रेषु) अद्भुत स्थानों में (वृषा) वीर्य करनेवाला (पृथुपाजाः) विस्तीर्ण बलवान् (अमर्त्यः) मरण-धर्मरहित (वैश्वानरः) सबका नायक (दाशुषे) दान करनेवाले के लिये (रत्ना) रमणीय हीरा आदि मणिरूप (वसु) धन को (दयमानः) देता हुआ (सिंहः) सिंह के समान (न, नानदत्) निरन्तर शब्द नहीं करता है (सः) वह सबको (वि जिन्वते) विशेषता से तृप्त करता है, ऐसा जानें ॥११॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को अग्नि में अद्भुत गुण-कर्म-स्वभावों को जान के अतुल लक्ष्मियों को सिद्ध कर अच्छे मार्गों में देनेवालों को देनी चाहिये। जो जाठराग्नि शान्त हो तो किसी के जीवन का संभव न हो और न इसके बिना बल भी कोई पा सकता है ॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

मनुष्यैर्यो जठरेषु प्रजज्ञिवान् चित्रेषु वृषा पृथुपाजा अमर्त्यो वैश्वानरो दाशुषे रत्ना वसु दयमानः सिंह इव न नानदत् स सर्वान् विजिन्वते इति विज्ञातव्यम् ॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (जिन्वते) पृणाति (जठरेषु) उदरेषु (प्रजज्ञिवान्) प्रजातः सन् (वृषा) वीर्य्यकारी (चित्रेषु) अद्भुतेषु (नानदत्) भृशं शब्दयति (न) इव (सिंहः) (वैश्वानरः) सर्वेषां नायकः (पृथुपाजाः) विस्तीर्णबलः (अमर्त्यः) मरणधर्मरहितः (वसु) धनानि (रत्ना) रमणीयानि हीरकादीनि (दयमानः) ददन् सन् (वि) (दाशुषे) दात्रे ॥११॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्वह्नावद्भुतान् गुणकर्मस्वभावान् विदित्वा अतुलाः श्रियः संपाद्य सन्मार्गेषु दातृभ्यो देयाः। यदि जाठराग्निः शान्तः स्यात्तर्हि जीवनं कस्यापि न संभवेन्न चैतेन विना बलमपि कश्चित्प्राप्नोति ॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी अग्नीचे अद्भुत गुण, कर्म, स्वभाव जाणून अतुल लक्ष्मी प्राप्त करून चांगल्या कामात खर्च करणाऱ्यांना द्यावी. जर जठराग्नी निष्क्रिय असेल तर कुणाचेही जीवन शक्य नसते व त्याच्याशिवाय कुणालाही बल प्राप्त होऊ शकत नाही. ॥ ११ ॥